कोई लौटा दे मुझे.....


आज किसी भिखारी की झुग्गी में कलर टीवी न हो, तो सोसाईटी में उसका स्टेटस नीचे आ जाता है। याद करके हैरत होती है उन दिनों को जब हमें घर में रेडियो रखने के लिये लाईसेंस लेना पड़ता था, टैक्स देना पड़ता था। उस रेडियो को ऑन करो तो आधा घंटा लगाता था गरम होने में। दो मीटर लंबा जालीदार एरियल दीवारों में कीलें ठोक कर बांधते थे। और इन सब के बाद भी हिन्दी गाने सुनने के लिये रेडियो सीलौन (अब श्रीलंका) ट्यून करना पड़ता था।

पिक्चर हॉल के बाहर गानों की किताबें बिकती थीं, जो काफ़ी महंगी होती थीं। यही कोई बीस या पच्चीस पैसे की। अब बाप दादा के पास कोई खज़ाना तो गड़ा नहीं था कि इतने पैसे गानों पर लुटा देते। सो रेडियो पर सुन कर गाने लिख लिया करते थे और फुर्सत में गाया करते थे। अब बुढ़ापे में फिर से उन्हीं दिनों को वापस लाने का शौक़ चर्राया है। फिर से कुछ गाने सुन सुन कर लिखे हैं। यह मेरा अपना प्रयास है, अपने लिए है। आप भी पढ़िये। दो चार लोग तो होंगे ही यहाँ जिन्हें वह दिन अब भी याद होंगे।

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